झारखंड का महापर्व टुसु का एक
माहव्यापी आयोजन मकर संक्रांति के दिन समाप्त
होता है।इस दिन बच्चे बुढ़े महिलाएं सभी पास के
नदी टुसु-चौड़न लेकर जाते है। वहां टुसु को विदाई
दी जाती है और स्नान कर "पुसपिठा" खाते
है।टुसु के बारे मे सटीक
जानकारी नही रहने के कारण कई
भ्रांतियां फैल गई है। कोई कहते है कि टुसु काशीपुर
के राजा की पुत्री थी तो कोई टुसु
को किसी कुड़मी जमींदार
की साहसी कन्या के रुप मे चित्रित करते
है। परंतु काशीपुर राजघराने के रिकार्ड मे
ऐसी किसी कन्या का कोई जिक्र तक
नही है तथा किसी अंजाने
जमींदार
की कन्या का भी झारखंड-बंगाल के इतिहास
गाथाओं मे जिक्र नही पाया गया है। तो टुसु है क्या?
वास्तव मे अलिखित इतिहास
की झारखंडी सभ्यता संस्कृति के अनेक
अमूल्य धरोहर मिटते गये है पर
जो अभी भी बचे है वो इसलिए कि उन्हे
पर्व के रुप मे जनजीवन का अंग बनाकर रखा गया है।
दरअसल, सदियों से चौतरफा सांस्कृतिक आक्रमणो की मार
से असली झारखंडी संस्कृतियां लगभग मिट
गई या उनका कायांतरण हो गया है । इससे इन त्योहारों का मूल भाव
को समझना काफी कठिन हो गया है।फिर
भी शोध करते करते कई के मूलभाव स्पष्ट हो चले
है। इसी संदर्भ मे 'टुसु' के बारे मे यह स्पष्ट हुआ
है कि टुसु न तो कोई राजकन्या थी और न
जमींदार की बेटी। यह
दरअसल यहां के कृषिजीवी जनमानस
की अन्नरुपी "मातृशक्ति"
थी जिसे 'डिनि-टुसुमनि' कहा जाता है।आदिकाल से जब
हमारे पुरखो ने अन्न उगाकर जीवनयापन करना आरंभ
किया तभी से उन्होने यह महसूस किया कि जिस
धरती माता के कोख से उत्पन्न अन्न के
द्वारा सृष्टि का स्वतः-संचालन होता आ रहा है तथा मानव
जीवन पुष्पित-पल्लवित हो रहा है उस
प्रकृति की मातृशक्ति की आराधना करके
ही मानव
अपनी संतति की रक्षा कर सकता है।
इसी के तहत खेतो से अन्न के घर आने और इससे
जीवन संपन्न होने का प्रतीक स्वरुप डिनि-
टुसुमनि की आराधना एक माह पर्यंत करने का विधान
है।इस अवधि मे कृषक-बालाएं
इनको अपनी संगी मानती है
जिसे पुनः अगले वर्ष आने को कहते हुए
जलरुपी ससुराल विदा कर दिया जाता है। अतएव, वाकई
टुसु
झारखंडी संस्कृति की मातृशक्ति का जीवंत
माहव्यापी आयोजन मकर संक्रांति के दिन समाप्त
होता है।इस दिन बच्चे बुढ़े महिलाएं सभी पास के
नदी टुसु-चौड़न लेकर जाते है। वहां टुसु को विदाई
दी जाती है और स्नान कर "पुसपिठा" खाते
है।टुसु के बारे मे सटीक
जानकारी नही रहने के कारण कई
भ्रांतियां फैल गई है। कोई कहते है कि टुसु काशीपुर
के राजा की पुत्री थी तो कोई टुसु
को किसी कुड़मी जमींदार
की साहसी कन्या के रुप मे चित्रित करते
है। परंतु काशीपुर राजघराने के रिकार्ड मे
ऐसी किसी कन्या का कोई जिक्र तक
नही है तथा किसी अंजाने
जमींदार
की कन्या का भी झारखंड-बंगाल के इतिहास
गाथाओं मे जिक्र नही पाया गया है। तो टुसु है क्या?
वास्तव मे अलिखित इतिहास
की झारखंडी सभ्यता संस्कृति के अनेक
अमूल्य धरोहर मिटते गये है पर
जो अभी भी बचे है वो इसलिए कि उन्हे
पर्व के रुप मे जनजीवन का अंग बनाकर रखा गया है।
दरअसल, सदियों से चौतरफा सांस्कृतिक आक्रमणो की मार
से असली झारखंडी संस्कृतियां लगभग मिट
गई या उनका कायांतरण हो गया है । इससे इन त्योहारों का मूल भाव
को समझना काफी कठिन हो गया है।फिर
भी शोध करते करते कई के मूलभाव स्पष्ट हो चले
है। इसी संदर्भ मे 'टुसु' के बारे मे यह स्पष्ट हुआ
है कि टुसु न तो कोई राजकन्या थी और न
जमींदार की बेटी। यह
दरअसल यहां के कृषिजीवी जनमानस
की अन्नरुपी "मातृशक्ति"
थी जिसे 'डिनि-टुसुमनि' कहा जाता है।आदिकाल से जब
हमारे पुरखो ने अन्न उगाकर जीवनयापन करना आरंभ
किया तभी से उन्होने यह महसूस किया कि जिस
धरती माता के कोख से उत्पन्न अन्न के
द्वारा सृष्टि का स्वतः-संचालन होता आ रहा है तथा मानव
जीवन पुष्पित-पल्लवित हो रहा है उस
प्रकृति की मातृशक्ति की आराधना करके
ही मानव
अपनी संतति की रक्षा कर सकता है।
इसी के तहत खेतो से अन्न के घर आने और इससे
जीवन संपन्न होने का प्रतीक स्वरुप डिनि-
टुसुमनि की आराधना एक माह पर्यंत करने का विधान
है।इस अवधि मे कृषक-बालाएं
इनको अपनी संगी मानती है
जिसे पुनः अगले वर्ष आने को कहते हुए
जलरुपी ससुराल विदा कर दिया जाता है। अतएव, वाकई
टुसु
झारखंडी संस्कृति की मातृशक्ति का जीवंत
प्रतीक है।