Wednesday, October 14, 2015

मै हमेशा तुम्हारे आस पास मिलुंगा

जुन या जुलाई 2006 का समय था...
मै पहली बारी अपने परिवार और आशियाने से दुर अपने सपनो का पिछा करने के लिए निकला था...
सपने क्या ... बस यह समझ लिजिऐ कि अपनी पहचान बनाने निकला था.....
घर से दुर जाने की पिड़ा तो थी ही साथ ही साथ शहर की जिंदेगी और चकाचौंध भी आकर्षित कर रही थी.... समझ नही पाया कि मेरी ऑखो से आने वाली आसु खुशी के लिए था या दुख.... जहन मे बहुत कुछ चल रहा था...



मॉ पापा स्टेसन तक छोड़ने आए थे....
बहुत कुछ तो नही बस इतना कहा था.... " आज से अपने फैसले खुद लेना होगा, जब भी आत्मा को लगे कि यह गलत है तो समझ लेना वो गलत ही है, वहॉ देखने वाला कोई नही होगा पर हमेशा हम और हमारे दिए हुए संस्कार तुम्हारा पिछा करते रहेंगे... "
उस समय दावनगिरी (बैंग्लोर ) मेरे लिए पेरिस के जैसा ही था...
वहॉ पहुचने की छटपटाहट ने इन बातो को कोई खास मोल नही दिया पर पापा के शब्द याद रह गए... ट्रेन आ चुकी थी , मम्मी पापा से आर्शीवाद लेकर ट्रेन की पहली सिढ़ी पर कदम रखा तो भावनाओ मे उफान मारा... पलट कर एक बार पिछे देखा तो मा पापा के ऑखो मे भी आसु के कुछ बुंदे दिखाई पड़ी...
तब से लेकर आज तक बस घुमता ही जा रहा हु... पता नही सपनो तक पहुचा की नही... बस पिछा करता रहा हु.... किसका ... ?  यह भी नही पता.... घर से निकलकर दावनगिरी, बैंगलोर, साहेबगंज, रांची होते हुऐ जीवन अभी मुम्बई मे आकर ठहरा है...
यह ठहराव है या अल्पविराम......?
यह भी अभी तक अनुत्तरित है.... बस चाहत है कि यह अल्पविराम ही हो....
वह दिन देखना चाहता हु, जब फिर से अपनी दुनिया मे लौट जाऊ, दुनिया मतलव मेरा परिवार.. या फिर ऐसा हो जाए कि मै अपनी दुनिया अपने पास बसाने की सामर्थ्य हासिल कर लु....
आज सबकुछ भुल गया हु... यह भी नही पता कि जिन उम्मीदो को पालकर पापा ने घर से दुर भेजा, उन्हे पुरा कर भी पाया की नही... बस कुछ याद है तो मॉ पापा का ऑखो का वो ऑसु और उनके कहे हुए वो शब्द..
"मैं हमेशा तुम्हारे आस पास मिलुंगा "

Monday, October 5, 2015

मेरी कलम से

बहुत वक़्त से सपने आते थे मुझे उस लड़की के..पर सपने में अँधेरा बहुत हुआ करता था इसलिए कभी उसकी शक़्ल देख नहीं पाया..फिर एक दिन तुम मिली और मेरे जीवन में तुम आई..
तुमसे बेइंतेहा मोहब्बत हुई मुझे..तुम्हारे बिना जीना दूभर हो गया..इश्क़ परवान चढ़ने लगा..हम एक होने लगे..वो लड़की फिर भी मेरे सपने में आती थी..पर इस बार चेहरा दिखा उसका..वो लड़की जो मेरे सपनों में आया करती थी, वो कौन थी मैं जान गया..
अगर तुम जानना चाहो कि वो लड़की कौन थी तो तुम्हारे कमरे में वो जो कांच का बड़ा टुकड़ा है न जिसके आगे खड़ी हो कर तुम खुद को संवारती हो, देख लेना उसमें..मगर ज़्यादा मत देखना, सुना है खुद की नज़र सबसे पहले लगती है..

Tuesday, September 29, 2015

आदतें अक्सर काम आसान कर देती हैं

बहुत सी चीजें जाने अनजाने में कब जिंदगी में आकर
जुड़ जाती है कहाँ पता चलता है। गर्मी अब लगती ही
नहीं है चाहे जितनी हो। काली टीशर्ट या गहरे रंग के
कपड़े जिस दिन निकालता हूँ उसी दिन वो पसीने में
इतने गीले हो जाते हैं कि पसीना सूख कर सफेद लाईन
सी बना देता है। अगले दिन के लायक नहीं बचते। हर
समय पसीना पसीना होता रहता है। वजन बहुत बढ़
गया है। 2013 में जब झाड़खंड छोड़ा था तब 56
किलो वजन था आज 75 के करीब है। बाल पिछले तीन
चार महीने से तेज रफ्तार से सफेद हो रहे हैं। दिन भर में दस बारह कप चाय हो ही जाती है। रात को बारह
दो बजे के कॉल सभी नींद में रिसीव कब हो जाते हैं
पता ही नहीं लगता एक बार सुबह एक आदमी बोलने
लगा आपने रात में तीन बजे बोला था आप ये काम
करवायेंगे आपने करवाया नहीं। मुझे याद ही नहीं रहा
उससे क्या बात की कब बात की। फोन में देखा तो
कॉल रीसिव्ड था। अच्छा खाने
का अब मन नहीं करता। रूम पर टीवी है डिश वाली पर
दो महीने से नहीं देखी। पता नहीं क्यूँ। शायद अब मन
नहीं होता। मुझे अब
ये भी अजीब नहीं लगता। ये सब कुछ पहले बहुत अजीब
लगता था। सब छोड़ छाड़ के भागने का मन करता था।
लगातार आदमी इस माहौल में रहे तो ब्रेकडाऊन
टाईप्स स्थिती हो जाती है। अब हर चीज एक अपना
ही हिस्सा लगती है। हर चीज पर रीएक्शन साईकल के
सामने कोई चीज आने पर ब्रेक लगाने जैसा है अपने आप
लग जाता है। किस्से अब और नजर नहीं आते शायद वो
अब हिस्से बन चुके हैं हो सकता इसलिये ऐसा हो। खैर
जो भी हो। आदतें अक्सर काम आसान कर देती हैं।
आदतें जरूरी है। हिस्सा बनाने के लिये। किस्सों के
लिये तो खैर पूरी ज़िंदगी पड़ी ही है।

Tuesday, January 13, 2015

झारखंड का महापर्व टुसु

झारखंड का महापर्व टुसु का एक
माहव्यापी आयोजन मकर संक्रांति के दिन समाप्त
होता है।इस दिन बच्चे बुढ़े महिलाएं सभी पास के
नदी टुसु-चौड़न लेकर जाते है। वहां टुसु को विदाई
दी जाती है और स्नान कर "पुसपिठा" खाते
है।टुसु के बारे मे सटीक
जानकारी नही रहने के कारण कई
भ्रांतियां फैल गई है। कोई कहते है कि टुसु काशीपुर
के राजा की पुत्री थी तो कोई टुसु
को किसी कुड़मी जमींदार
की साहसी कन्या के रुप मे चित्रित करते
है। परंतु काशीपुर राजघराने के रिकार्ड मे
ऐसी किसी कन्या का कोई जिक्र तक
नही है तथा किसी अंजाने
जमींदार
की कन्या का भी झारखंड-बंगाल के इतिहास
गाथाओं मे जिक्र नही पाया गया है। तो टुसु है क्या?
वास्तव मे अलिखित इतिहास
की झारखंडी सभ्यता संस्कृति के अनेक
अमूल्य धरोहर मिटते गये है पर
जो अभी भी बचे है वो इसलिए कि उन्हे
पर्व के रुप मे जनजीवन का अंग बनाकर रखा गया है।
दरअसल, सदियों से चौतरफा सांस्कृतिक आक्रमणो की मार
से असली झारखंडी संस्कृतियां लगभग मिट
गई या उनका कायांतरण हो गया है । इससे इन त्योहारों का मूल भाव
को समझना काफी कठिन हो गया है।फिर
भी शोध करते करते कई के मूलभाव स्पष्ट हो चले
है। इसी संदर्भ मे 'टुसु' के बारे मे यह स्पष्ट हुआ
है कि टुसु न तो कोई राजकन्या थी और न
जमींदार की बेटी। यह
दरअसल यहां के कृषिजीवी जनमानस
की अन्नरुपी "मातृशक्ति"
थी जिसे 'डिनि-टुसुमनि' कहा जाता है।आदिकाल से जब
हमारे पुरखो ने अन्न उगाकर जीवनयापन करना आरंभ
किया तभी से उन्होने यह महसूस किया कि जिस
धरती माता के कोख से उत्पन्न अन्न के
द्वारा सृष्टि का स्वतः-संचालन होता आ रहा है तथा मानव
जीवन पुष्पित-पल्लवित हो रहा है उस
प्रकृति की मातृशक्ति की आराधना करके
ही मानव
अपनी संतति की रक्षा कर सकता है।
इसी के तहत खेतो से अन्न के घर आने और इससे
जीवन संपन्न होने का प्रतीक स्वरुप डिनि-
टुसुमनि की आराधना एक माह पर्यंत करने का विधान
है।इस अवधि मे कृषक-बालाएं
इनको अपनी संगी मानती है
जिसे पुनः अगले वर्ष आने को कहते हुए
जलरुपी ससुराल विदा कर दिया जाता है। अतएव, वाकई
टुसु
झारखंडी संस्कृति की मातृशक्ति का जीवंत


प्रतीक है।