Saturday, November 30, 2013

लोकतंत्र ज़िंदाबाद, फोर्थ पिलर ज़िंदाबाद, जय बाबा बर्फानी!

वैसे तो आप सब को लगता होगा कि भाई मीडिया जो है सो एकदम ट्वन्टी-फ़ोर सेवन जगा रहता है और बहुत बिज़ी भी। सक्सेना जी का भी यही मानना है। लेकिन ग़ौर कीजिएगा तो पता चलेगा कि इनसे बड़ा खलिहर (जिसे वेल्ला भी कहते हैं) कोई नहीं है।

बलात्कार अगर हुआ और किसी ने वो ख़बर चला दी तो फिर लगता है कि भाई इस देश में बस बलात्कार ही हो रहे हैं। कैग ने घोटाले की ख़बर छापी तो पता चलता है कि देश में सिर्फ़ घोटाले ही हो रहे हैं। और ग़ौर करने की बात ये है कि सप्ताह-दस दिन के बाद देश में बलात्कार बंद हो जाता है, घोटाले बंद हो जाते हैं, पुलिस की ज़्यादती बंद हो जाती है, अन्ना की आँधी बंद हो जाती है...

एक बात और है अगर किसी को जेल की सज़ा हो गई है तो कम से कम सात ख़बरें ये ज़रूर देते हैं: संजय दत्त का सेल नंबर, श्रीसंत ने पहले दिन क्या खाया, लालू को मच्छरों वाला कमरा, तलवार दंपत्ति ने की क़ैदियों के दाँत की सफ़ाई...

चौथा स्तंभ है न!

आजकल सेक्सुअल असाॅल्ट सप्ताह मनाया जा रहा है मीडिया में। जज साहब ने छेड़ दिया, तेजपाल साहब के डर से लोग साढियों से चल रहे हैं, आसाराम की भी दाढ़ी है, सी ई ओ ने छेड़ा था दो साल पहले, नहीं मिली दोषी को सज़ा...

लोकतंत्र ज़िंदाबाद, फोर्थ पिलर ज़िंदाबाद, जय बाबा बर्फानी!

Tuesday, November 12, 2013

बीच वाली उँगली

मैं बचपने में हर खेल में फिसड्डी हुआ करता था. लेकिन एक खेल ऐसा था जिसमें कोई भी मुझसे पार नहीं पा सकता था. खेल का नाम था - बीच वाली उँगली. मैं बाकी की तीन उँगलियों और अंगूठे के बीच, अपनी बीच वाली उँगली को ऐसे छिपा लेता था कि मजाल है कि कोई उसे ढूंढ पाए !
तुम लडकी हो इसलिए तुम्हें भी लगता था कि तुम खेलों में फिसड्डी ही साबित हो जाओगी. शायद इस वजह से तुम भी घंटों मेरे साथ वही खेल खेला करती थीं.
एक दिन तुमने बताया कि पिता जी का तबादला हो गया है और तुम शहर छोड़ कर जाने वाली हो. तुमने कहा कि मैं तुम्हें कहीं छिपा लूं. तुम संदूक में फिट नहीं हो पाई, इसलिए मैंने तुम्हें खटिया के नीचे छिपा दिया पर तुम्हारे पिता जी ने उसकी जालीदार निवाड़ में झांककर तुम्हें झट से खोज लिया.
और तुम चली गईं.
काश... उस दिन, मैं तुम्हें अपने अंगूठे और बाकी की तीन उँगलियों के बीच छिपा लेता !! काश !!

Sunday, November 10, 2013

FOR WHAT PURPOSE

बात उस समय की है जब नया नया इंजिनियरिंग कॉलेज मे दाखिला हुआ था..
हमारा ग्रुप कॉलेज का सबसे चंट ग्रुप था.
कहने की ज़रुरत नहीं है कि सबकी कोई ना कोई थी. ये अलग बात है, कि लड़कियाँ ऐसे किसी भी बात से हमेशा ही अनजान रहीं. किसी लड़की के मजनुओं की संख्या ज्यादा हो जाने पे मामला "तुम्हारी भाभी-तुम्हारी भाभी" से शुरू हो के कभी-कभी पटका-पटकी पे ख़त्म होता था.
खैर !
खैर ! वापस आते हैं.
कॉलेज मे एक लड़की थी जब भी वो दिखती थी,दुनियाँ और रंगीन हो उठती थी, गानों में और मिठास घुल जाती थी और हवाएँ ज़ुल्फ़ों को कुछ ज्यादा ही शाहरूख खान टाईप फ़ील देने लगती थीं.तब हमारे एक मित्र हुआ करते थे (नाम नहीं लूँगा.), उन्हें मित्र नाम से ही बुलाते हैं. तो मैंने मित्र को अपना हाले दिल कह सुनाया. मित्र परम चंट थे. एक रोज़ संयोग से जब मित्र बाहर हमारे बरामदे में बैठे थे, उसी समय वो हमारे सामने से गुज़री. मैंने मित्र को "अबे यही है - अबे यही है" कर के उसे दिखा दिया.
मित्र बोले - अबे इए तो B section मे है.
मैंने बहुत सोच के कहा - "कार्ड दें, कि लेटर ?"
मित्र बोले - "अरे वही पुराना तरीका, बाबा आदम के ज़माने वाला...बै...कुछ नया सोचो...मान लो कार्ड फाड़ के फेंक दी तो ? कैसा लगेगा ?"
"तो लेटर ?" मैंने कहा.
"क्यूँ वो लोहे का बनता है क्या ? और मान लो ये सब पकड़ा गया तो ?" मित्र ने समझदारी दिखाते हुए कहा.
"तो ?" अब मेरी बुद्धि ही बंद हो गई.
"अरे मित्र सामने से बोलो. मर्द की तरह." मित्र ने कहा.
"मुँह से ?" मेरे तो हाथ-पाँव ही फूल गए.
"और क्या...देखो लड़की देखने में शरीफ़ लग रही है. तुम बोल भी दिए तो चुप मार के निकल लेगी. कुछ बोलेगी नहीं. ना भी नहीं बोलेगी. सिर झुका के चली जाएगी. ना कार्ड का ख़र्चा, ना पकड़ाने का डर. बोलो, क्या बोलते हो...?"
"यार मगर बोलेंगे कहाँ ?" मैंने पूछा.
"अबे जहाँ अकेली मिल जाए, वहीँ बोल देना. इतना सोचना क्या है इसमें ?" मित्र ने गज़ब का कांफिडेंस दिखाते हुए कहा.
एक ही सेकेण्ड में दुनियाँ का कोना-कोना मेरी आँखों के सामने नाँच गया.
बहरहाल, फ़ैसले का दिन आ गया.
मिल गयी एक दिन कॉलेज मे अकेले.
पहुँच गए शहीद होने.
उसके बगल में पहुँचा, और उसे कहा "MAY I KNOW YOUR NAME?"
उधर से जबाब आया "FOR WHAT PURPOSE?"
मुझे संट मार गया था, कान में से धुआँ निकने वाला था और पूरा ब्रह्माण्ड जाने कहाँ गायब हो गया था.
बस कॉलेज की दीवारे थी, और मैं था. ना तो मुझे वो लड़की ही दिख रही थी, ना ही मित्र.
कहने की ज़रुरत नहीं कि उस प्रपोज़ल का क्या हुआ...मैं दुबारा कभी उस लड़की के सामने गया ही नहीं. हक़ीक़त ये है कि जब भी वो लड़की मुझे दिखती, मैं अपना रास्ता बदल लेता था. और इस तरह मेरे उस प्रपोज़ल ने दम तोड़ दिया.

Friday, November 8, 2013

'Lakhani' से 'Nike' तक का सफ़र

'Lakhani' से 'Nike' तक का सफ़र हमने ऐसे ही नहीं तय किया ...

प्रतिशत पे प्रतिशत चढ़ाये हैं ... तब जाके Nike की पहचान पाए हैं ...

आठवीं कक्षा में Board दिया ... वो लल्लू सा पंजू सा Board जिसके mark-sheet भी उस ज़माने के Dot-Matrix Printer से निकाल कर थमा दिया था School वालों ने ... परीक्षा भी अपने class-room के बाजू वाले class-room में दी थी ... 'पल्लवी' का class-room था वो ... बड़ा चिढ़ाते थे सब उसको लेके ... तब लडकियां दूसरी ही प्रजाति मालूम होती थी ... सो मैं चिढ़ कर निकल लेता था ...

फिर बारी आई 'Iron Gate' की ... रंगारंग तय्यारियाँ हुई ... नंवी कक्षा में ही registration करवा दिया गया की लड़का भागे नहीं कहीं और ... अपने नाम की spelling भी दोबारा जाँची गयी ... आखिर में Admit Card मिला ... 

भैया दसवीं के Board Exams ऐसे होते हैं जैसे शेर के घर कबूतर दावत-ए-सामान आये हों , और कबूतर के करतब से उसके जीने या मरने की संभावना उजागर होगी ... 

Examination Centre भी दूर किसी वीरान School में देते थे ... की भैया अगर उस दावत से जान छुड़ानी भी हो तो कबूतर भाग न पाए ...

Examination Hall में वो पहले 15 minute invigilators का तमाशा , वो अंगूठा लगवाना , वो पोथी लिखवाना ... वो घिसती कलम और गुज़रते हुए बाकी वक़्त के बीच में extra paper की मांग करना ... उसपे भी उन invigilators का ज़बरदस्ती '+1' का ritual करवाना ... दिल की धडकनें तो भैया क्या ही प्यार में इतनी धड़केंगी ... बस जान हलक पे आके रुकी रहती थी समझो ... 

खैर , हमने भी अच्छी बाज़ी खेली ... सारे पत्ते बिछा डाले ... Maths और Science को तो पीस दिया ... Social Science के दहशत से बचने के लिए पांच बारी वो NCERT की किताब रट डाली ... अंग्रेजी में कोई माहिर तो नहीं थे , पर सही वक़्त पर कलम चलाना आता था हमें ... 

सो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण किया हमने 10th Board .

फिर बारी आई 'Golden Gate' की ... ये सब terms हमारे अभिभावक खूब अच्छे से जानते थे ... हर बार कबूतर को हलाल/बेहाल करने के पहले ये "बस ये exam दे लो फिर ज़िन्दगी में आराम है" की घुंटी ज़रूर पिलाई जाती थी ...

और हम भी "आराम" के पुजारी , फट से पी लेते थे वो घुंटी ... 

खैर ... 

बारहवीं के Board Exams हमारे लिए एक experienced Gladiator का Arena था ... "We know the drill" ... यही सोच सोच कर Pre-Board तक फिसड्डी बने रहे ... की आखिर में तो सब गटक ही लेंगे ... लेकिन जितना गटक नहीं पाए उससे ज्यादा उलटी कर दी ...

किशोरावस्था भी जो थी ... Lady invigilator क्या आ गयी , Chemistry की Organic part ही भूल गए ... वैसे भी कौन सी पसंद थी Chemistry ... यही सोच कर खुद को satisfy कर लिया ...

cbseresults.nic.in ने फिर अपना हाहाकार मचाया ... मन थोडा कुंठित हुआ ... ये तो कम है ... इतना तो बिन पढ़े लेते आता मैं ... 'Neha' क्या सोचेगी ... 'Neha' हमारे Uncle की बेटी थी ... उसे अगर मेरे से एक mark भी ज्यादा आ गए न , तो मेरे घर में आग लग जायेगी ... हमेशा पीछे रही है वो मेरे से ... अब Parents को क्या जवाब दूंगा मैं ... 

खैर , जैसे तैसे वो वक़्त गुज़रा ... 

बारी आई Engineering के competitions की ... हमारे family में तो Engineering के अलावा और कोई career का नाम भी न सुना होगा लोगों ने ... सो हमने कभी अपने मन को भटकाने की चेष्टा भी नहीं की ... सारा past कूड़ेदान में फेक के लग गए जोर शोर से Engineering की तय्यारी के लिए ... घिस डाली Resnick Halliday , I.E Irodov और Foundation Physics ... माफ़ कीजियेगा I.E Irodov नहीं घिसी ... वो सिर्फ अपने Tuition वाले Master जी घिसते थे ... वही question देते थे और वही solve करते थे ... 

Finally , हमने इस बार अच्छा ज़ोर लगाया और अच्छे Rank की कामयाबी पे उछल पड़े ... ताबड़तोड़ Counselling के बाद एक अच्छी College भी मिल गयी ... 

वो Counselling और Admission procedure का torture अगर Kasab को दे देते तो चार साल मुफ्त का खिलाना न पड़ता उसे ... By God बस क़त्ल करना बाकी था उनके torture schedule में ... Bank से Draft बनाना तो खैर उस torture का Degree 1 था ... Documents check कराना Degree 2 ... and so on and so forth ...

मर-पछड़ कर किसी तरह Admission हुआ , और Hostel-Room allot हुआ ... ज़िन्दगी बड़ी सुहानी हो गयी थी ... बस वो Hostel Mess नाम का Mess न होता तो खैर सुहानेपन में चार-चाँद लग जाते ...

Mature भी हो चले थे ... अब लड़कियों से दोस्ती करते थे दुश्मनी नहीं ... College में तो बस अभिभावकों की सारी "ज़िन्दगी आसान हो जाएगी" वाली कथन सार्थक हो गयी थी ... न School-bag का बोझ , न Exams के लफड़े ... Exams तो एक रात पहले की गयी रटन-विद्या की कहानी थी ... ऐसा लगता था जैसे सब कुछ पा लिया ...

पलक झपकते ही चार साल बीत गए ... ज़िन्दगी ने वापिस उसी मुकाम पे लाके खड़ा कर दिया ... वही 'Platinum gate' जिसे लोग 'Placements' का नाम देते हैं ... 

खैर , ये भी घिसा हमने Board Exams के तरह ... HR के बेवक़ूफ़ चेहरों और पुराने Seniors के accomodating attitude को सामान रूप से Interview में सराहते हुए हमने एक Company अपने नाम कर ली ... GPL अर्थात 'नितम्ब पे लात' भी ज़ोरदार पड़ी , पर हम तो Birthday GPL वाले लोग , इन सब से क्या डर ... सह लिया बहादुर सिपाही की तरह ... 

और आज यहाँ हैं ... आप हम , सब एक दुसरे के रूबरू ... Facebook पे अपना 'आराम' ढूंढते हुए ...
और पता नहीं कितने Gate बाकी हैं , उस आराम की खोज के सफ़र में ...

सच कहा न मैंने ... 'Lakhani' से 'Nike' तक का सफ़र हमने ऐसे ही नहीं तय किया .