Sunday, November 10, 2013

FOR WHAT PURPOSE

बात उस समय की है जब नया नया इंजिनियरिंग कॉलेज मे दाखिला हुआ था..
हमारा ग्रुप कॉलेज का सबसे चंट ग्रुप था.
कहने की ज़रुरत नहीं है कि सबकी कोई ना कोई थी. ये अलग बात है, कि लड़कियाँ ऐसे किसी भी बात से हमेशा ही अनजान रहीं. किसी लड़की के मजनुओं की संख्या ज्यादा हो जाने पे मामला "तुम्हारी भाभी-तुम्हारी भाभी" से शुरू हो के कभी-कभी पटका-पटकी पे ख़त्म होता था.
खैर !
खैर ! वापस आते हैं.
कॉलेज मे एक लड़की थी जब भी वो दिखती थी,दुनियाँ और रंगीन हो उठती थी, गानों में और मिठास घुल जाती थी और हवाएँ ज़ुल्फ़ों को कुछ ज्यादा ही शाहरूख खान टाईप फ़ील देने लगती थीं.तब हमारे एक मित्र हुआ करते थे (नाम नहीं लूँगा.), उन्हें मित्र नाम से ही बुलाते हैं. तो मैंने मित्र को अपना हाले दिल कह सुनाया. मित्र परम चंट थे. एक रोज़ संयोग से जब मित्र बाहर हमारे बरामदे में बैठे थे, उसी समय वो हमारे सामने से गुज़री. मैंने मित्र को "अबे यही है - अबे यही है" कर के उसे दिखा दिया.
मित्र बोले - अबे इए तो B section मे है.
मैंने बहुत सोच के कहा - "कार्ड दें, कि लेटर ?"
मित्र बोले - "अरे वही पुराना तरीका, बाबा आदम के ज़माने वाला...बै...कुछ नया सोचो...मान लो कार्ड फाड़ के फेंक दी तो ? कैसा लगेगा ?"
"तो लेटर ?" मैंने कहा.
"क्यूँ वो लोहे का बनता है क्या ? और मान लो ये सब पकड़ा गया तो ?" मित्र ने समझदारी दिखाते हुए कहा.
"तो ?" अब मेरी बुद्धि ही बंद हो गई.
"अरे मित्र सामने से बोलो. मर्द की तरह." मित्र ने कहा.
"मुँह से ?" मेरे तो हाथ-पाँव ही फूल गए.
"और क्या...देखो लड़की देखने में शरीफ़ लग रही है. तुम बोल भी दिए तो चुप मार के निकल लेगी. कुछ बोलेगी नहीं. ना भी नहीं बोलेगी. सिर झुका के चली जाएगी. ना कार्ड का ख़र्चा, ना पकड़ाने का डर. बोलो, क्या बोलते हो...?"
"यार मगर बोलेंगे कहाँ ?" मैंने पूछा.
"अबे जहाँ अकेली मिल जाए, वहीँ बोल देना. इतना सोचना क्या है इसमें ?" मित्र ने गज़ब का कांफिडेंस दिखाते हुए कहा.
एक ही सेकेण्ड में दुनियाँ का कोना-कोना मेरी आँखों के सामने नाँच गया.
बहरहाल, फ़ैसले का दिन आ गया.
मिल गयी एक दिन कॉलेज मे अकेले.
पहुँच गए शहीद होने.
उसके बगल में पहुँचा, और उसे कहा "MAY I KNOW YOUR NAME?"
उधर से जबाब आया "FOR WHAT PURPOSE?"
मुझे संट मार गया था, कान में से धुआँ निकने वाला था और पूरा ब्रह्माण्ड जाने कहाँ गायब हो गया था.
बस कॉलेज की दीवारे थी, और मैं था. ना तो मुझे वो लड़की ही दिख रही थी, ना ही मित्र.
कहने की ज़रुरत नहीं कि उस प्रपोज़ल का क्या हुआ...मैं दुबारा कभी उस लड़की के सामने गया ही नहीं. हक़ीक़त ये है कि जब भी वो लड़की मुझे दिखती, मैं अपना रास्ता बदल लेता था. और इस तरह मेरे उस प्रपोज़ल ने दम तोड़ दिया.

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