बहुत सी चीजें जाने अनजाने में कब जिंदगी में आकर
जुड़ जाती है कहाँ पता चलता है। गर्मी अब लगती ही
नहीं है चाहे जितनी हो। काली टीशर्ट या गहरे रंग के
कपड़े जिस दिन निकालता हूँ उसी दिन वो पसीने में
इतने गीले हो जाते हैं कि पसीना सूख कर सफेद लाईन
सी बना देता है। अगले दिन के लायक नहीं बचते। हर
समय पसीना पसीना होता रहता है। वजन बहुत बढ़
गया है। 2013 में जब झाड़खंड छोड़ा था तब 56
किलो वजन था आज 75 के करीब है। बाल पिछले तीन
चार महीने से तेज रफ्तार से सफेद हो रहे हैं। दिन भर में दस बारह कप चाय हो ही जाती है। रात को बारह
दो बजे के कॉल सभी नींद में रिसीव कब हो जाते हैं
पता ही नहीं लगता एक बार सुबह एक आदमी बोलने
लगा आपने रात में तीन बजे बोला था आप ये काम
करवायेंगे आपने करवाया नहीं। मुझे याद ही नहीं रहा
उससे क्या बात की कब बात की। फोन में देखा तो
कॉल रीसिव्ड था। अच्छा खाने
का अब मन नहीं करता। रूम पर टीवी है डिश वाली पर
दो महीने से नहीं देखी। पता नहीं क्यूँ। शायद अब मन
नहीं होता। मुझे अब
ये भी अजीब नहीं लगता। ये सब कुछ पहले बहुत अजीब
लगता था। सब छोड़ छाड़ के भागने का मन करता था।
लगातार आदमी इस माहौल में रहे तो ब्रेकडाऊन
टाईप्स स्थिती हो जाती है। अब हर चीज एक अपना
ही हिस्सा लगती है। हर चीज पर रीएक्शन साईकल के
सामने कोई चीज आने पर ब्रेक लगाने जैसा है अपने आप
लग जाता है। किस्से अब और नजर नहीं आते शायद वो
अब हिस्से बन चुके हैं हो सकता इसलिये ऐसा हो। खैर
जो भी हो। आदतें अक्सर काम आसान कर देती हैं।
आदतें जरूरी है। हिस्सा बनाने के लिये। किस्सों के
लिये तो खैर पूरी ज़िंदगी पड़ी ही है।
जुड़ जाती है कहाँ पता चलता है। गर्मी अब लगती ही
नहीं है चाहे जितनी हो। काली टीशर्ट या गहरे रंग के
कपड़े जिस दिन निकालता हूँ उसी दिन वो पसीने में
इतने गीले हो जाते हैं कि पसीना सूख कर सफेद लाईन
सी बना देता है। अगले दिन के लायक नहीं बचते। हर
समय पसीना पसीना होता रहता है। वजन बहुत बढ़
गया है। 2013 में जब झाड़खंड छोड़ा था तब 56
किलो वजन था आज 75 के करीब है। बाल पिछले तीन
चार महीने से तेज रफ्तार से सफेद हो रहे हैं। दिन भर में दस बारह कप चाय हो ही जाती है। रात को बारह
दो बजे के कॉल सभी नींद में रिसीव कब हो जाते हैं
पता ही नहीं लगता एक बार सुबह एक आदमी बोलने
लगा आपने रात में तीन बजे बोला था आप ये काम
करवायेंगे आपने करवाया नहीं। मुझे याद ही नहीं रहा
उससे क्या बात की कब बात की। फोन में देखा तो
कॉल रीसिव्ड था। अच्छा खाने
का अब मन नहीं करता। रूम पर टीवी है डिश वाली पर
दो महीने से नहीं देखी। पता नहीं क्यूँ। शायद अब मन
नहीं होता। मुझे अब
ये भी अजीब नहीं लगता। ये सब कुछ पहले बहुत अजीब
लगता था। सब छोड़ छाड़ के भागने का मन करता था।
लगातार आदमी इस माहौल में रहे तो ब्रेकडाऊन
टाईप्स स्थिती हो जाती है। अब हर चीज एक अपना
ही हिस्सा लगती है। हर चीज पर रीएक्शन साईकल के
सामने कोई चीज आने पर ब्रेक लगाने जैसा है अपने आप
लग जाता है। किस्से अब और नजर नहीं आते शायद वो
अब हिस्से बन चुके हैं हो सकता इसलिये ऐसा हो। खैर
जो भी हो। आदतें अक्सर काम आसान कर देती हैं।
आदतें जरूरी है। हिस्सा बनाने के लिये। किस्सों के
लिये तो खैर पूरी ज़िंदगी पड़ी ही है।
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