जुन या जुलाई 2006 का समय था...
मै पहली बारी अपने परिवार और आशियाने से दुर अपने सपनो का पिछा करने के लिए निकला था...
सपने क्या ... बस यह समझ लिजिऐ कि अपनी पहचान बनाने निकला था.....
घर से दुर जाने की पिड़ा तो थी ही साथ ही साथ शहर की जिंदेगी और चकाचौंध भी आकर्षित कर रही थी.... समझ नही पाया कि मेरी ऑखो से आने वाली आसु खुशी के लिए था या दुख.... जहन मे बहुत कुछ चल रहा था...
मै पहली बारी अपने परिवार और आशियाने से दुर अपने सपनो का पिछा करने के लिए निकला था...
सपने क्या ... बस यह समझ लिजिऐ कि अपनी पहचान बनाने निकला था.....
घर से दुर जाने की पिड़ा तो थी ही साथ ही साथ शहर की जिंदेगी और चकाचौंध भी आकर्षित कर रही थी.... समझ नही पाया कि मेरी ऑखो से आने वाली आसु खुशी के लिए था या दुख.... जहन मे बहुत कुछ चल रहा था...
मॉ पापा स्टेसन तक छोड़ने आए थे.... बहुत कुछ तो नही बस इतना कहा था.... " आज से अपने फैसले खुद लेना होगा, जब भी आत्मा को लगे कि यह गलत है तो समझ लेना वो गलत ही है, वहॉ देखने वाला कोई नही होगा पर हमेशा हम और हमारे दिए हुए संस्कार तुम्हारा पिछा करते रहेंगे... "
उस समय दावनगिरी (बैंग्लोर ) मेरे लिए पेरिस के जैसा ही था...
वहॉ पहुचने की छटपटाहट ने इन बातो को कोई खास मोल नही दिया पर पापा के शब्द याद रह गए... ट्रेन आ चुकी थी , मम्मी पापा से आर्शीवाद लेकर ट्रेन की पहली सिढ़ी पर कदम रखा तो भावनाओ मे उफान मारा... पलट कर एक बार पिछे देखा तो मा पापा के ऑखो मे भी आसु के कुछ बुंदे दिखाई पड़ी...
तब से लेकर आज तक बस घुमता ही जा रहा हु... पता नही सपनो तक पहुचा की नही... बस पिछा करता रहा हु.... किसका ... ? यह भी नही पता.... घर से निकलकर दावनगिरी, बैंगलोर, साहेबगंज, रांची होते हुऐ जीवन अभी मुम्बई मे आकर ठहरा है...
यह ठहराव है या अल्पविराम......?
यह भी अभी तक अनुत्तरित है.... बस चाहत है कि यह अल्पविराम ही हो....
वह दिन देखना चाहता हु, जब फिर से अपनी दुनिया मे लौट जाऊ, दुनिया मतलव मेरा परिवार.. या फिर ऐसा हो जाए कि मै अपनी दुनिया अपने पास बसाने की सामर्थ्य हासिल कर लु....
आज सबकुछ भुल गया हु... यह भी नही पता कि जिन उम्मीदो को पालकर पापा ने घर से दुर भेजा, उन्हे पुरा कर भी पाया की नही... बस कुछ याद है तो मॉ पापा का ऑखो का वो ऑसु और उनके कहे हुए वो शब्द..
"मैं हमेशा तुम्हारे आस पास मिलुंगा "